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पिछले हफ्ते मैंने नेटफ्लिक्स सीरीज “दिल्ली क्राइम” देखा जो कि 2012 के निर्भया गैंगरेप पर आधारित है।
सीरीज जानकारी –
इसमे कुल 7 एपिसोड्स हैं जो कि 357 मिनट्स मतलब लगभग 6 घंटे लेते हैं इसको पूरा देखने में। 22 मार्च को रिलीज़ हुई ये मैंने दो दिन में ख़त्म की लेकिन कभी भी मुझे ये नहीं लगा कि मैंने 6 घंटे बर्बाद कर दिया।
कहानी –
अगर आप सोच रहे हैं इसमें नया क्या है, आपको पूरी कहानी पता है। बहुत सारे न्यूज़ चैनेल्स और कई जगह अलग अलग तरीके से दिखाया गया तो अब इसमें 7 साल बाद नया क्या आ गया।
अगर आपको लगता है कि उस घिनौने अपराध को देखकर या केवल सोचकर ही मन सिहर जाता है तो फिर से क्यों देखना ? मेरे भी मन में ऐसे ही कुछ सवाल थे लेकिन जब एक बार देखना चालू किया तो फिर रुका नहीं और अब आपके एक एक सवाल का जवाब देता चलता हूँ –
क्यों देखे ?
उस पुरे घटनाक्रम को हमने कई न्यूज़ चैनल में देखा , क्राइम पेट्रोल में देखा लेकिन वो सब आम लोगों की भावनाओं के साथ TRP बटोरने के लिए था। इस पुरे सीरीज में पुलिस की कार्य प्रणाली पर बताया गया है कि कैसे तिनका तिनका करके पुलिस ने सबूत इकठ्ठा किया और महज 5 दिन में सारे अपराधियों को पकड़ लिया। बताया गया है कि किस तरह बिजली बिल और गाडी के ईंधन के लिए पुलिस को जुगाड़ करना पड़ता है, कभी कभी अपने जेब से पैसे भरने पड़ते हैं।
नेताओं की गिद्ध दृष्टि
हफ्ते के सातों दिन और दिन के 24 घंटे लगे रहने के बाद भी आम जनता सबसे पहले इनका ही गला पकड़ती हैं। हर मुद्दे में अपनी रोटी सेंकने वाले गिद्ध-दृष्टि के राज नेता कैसे इस जघन्य अपराध के समय भी अपनी राजनीति खेलने से बाज नहीं आते |
गैरजिम्मेदार मीडिया
मीडिया के सनसनी पैदा करके लोगों के बीच भय और असुरक्षा का माहौल बनाती है। इतना ही नहीं, वो गुनहगारों को और सतर्क भी कर देती है। अगर मीडिया अपनी जिम्मेदारी समझे तो मेहनत कर रही पुलिस को अपराधियों को पकड़ने में आसानी रहेगी।
पुलिस विभाग पर ज्यादा वर्कप्रेशर
कहानी में नक्सल एरिया में एक अपराधी को पकड़ने गये टीम का एक सदस्य बोलता है कि अमेरिका की पुलिस हफ्ते में को हफ्ते में छुट्टी और फिक्स्ड घंटे में ही काम करना होता है और सैलरी इतनी होती है कि घुस लेने की जरुरत ही नहीं पड़ती हैं जो कि काफी हद्द तक सही भी है। दिल्ली जैसे बड़े शहर, जो कि कई देशों से भी बड़ा है, आज की डेट में भी
दिल्ली पुलिस में लोगों की कमी है और अपराध बहुत ज्यादा है।
घिनौने अपराध का चित्रण
जैसा हमने बहुत न्यूज़ रिपोर्ट्स और अलग अलग डॉक्यूमेंट्री में उस पुरे घंटना का वीभत्स और बहुत घिनौना फिल्मांकन देखा है, इस सीरीज में ऐसा कुछ नहीं। बस एक बार जब पीड़िता अपना स्टेटमेंट देती है तो मन सिहर जाता है और सोचने लगता है कि भला एक इंसान किसी दीसरे के साथ ऐसा कैसे कर सकता है, लेकिन वह ज्यादा नहीं है और फिर कहानी आगे बढ़ती है और वापस पुलिस डिपार्टमेंट की और खिंच लेती हैं।
कुछ और रीव्यूज
comes across as such an elaborate exercise to valorise the Delhi Police that it actually seems deeply insensitive
Piyasree Dasgupta of HuffPost
consistently different enough to be interesting the police-procedural conventions felt reasonably fresh and consistently engaging
Daniel Fienberg of The Hollywood Reporter
Delhi Crime might be a glorification of the police force, but it is also a mirror to our society. It might absolve the Delhi police of its alleged dereliction of duties, but it is also a reminder that we vouched, and hoped, for a similar incident to never happen again.
Avinash Ramachandran of The New Indian Express – Cinema Express
और अंत में
इतना मीडिया, राजनितिक और आम जनता द्वारा किये जा रहे प्रेशर और कोई सबूत नहीं होने के बावजूद एक एक कड़ियों को जोड़ते हुए केवल 5 दिन में सारे गुनहगारों को जेल में पहुंचाने वाली टीम को हार्दिक बधाई।
इस एपिसोड में मुख्य किरदारों के नाम बदल दिए गए हैं लेकिन असली हीरो को हम भूल न जाए उनके लिए इस केस को हैंडल करने वाली आईपीएस छाया शर्मा और उनकी टीम को सैल्यूट।
और हाँ, अब अंत में इस बात का ध्यान रखें कि यह एक सीरीज है, थोड़ा रोचक बनाने के लिए कल्पनाओं को भी मिलाया गया है। बीच में थोड़ा स्लो भी होता है लेकिन रियल जिंदगी में भी हमेशा रोमांच और एडवेंचर नहीं होता तो इसे उसी रूप में लें।